Natasha

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राजा की रानी

रतन ने खुलासा करके ही कहा। सब बातें सुनकर मेरे मन में क्या हुआ, सो बताना कठिन है। सिर्फ इतना याद है कि उसकी निष्ठुर कदर्यता और असीम वीभत्सता के भार से सम्पूर्ण चित्त एकबारगी तिक्त और विवश-सा हो गया। कैसे क्या हुआ, उसका विस्तृत इतिहास रतन अभी तक इकट्ठा नहीं कर पाया है, परन्तु जितना सत्य उसने छानकर निकाला है उससे मालूम हुआ कि नवीन मोड़ल फिलहाल जेल में सजा काट रहा है और मालती अपने बहनोई के उस छोटे भाई को जो बड़ा आदमी है, साथी बनाकर गंगामाटी में रहने के लिए कल अपने मायके लौट आई है। मालती को अगर अपनी ऑंखों से देखता तो शायद इस बात पर विश्वास करना ही कठिन हो जाता कि राजलक्ष्मी के रुपयों की सचमुच ही इस प्रकार सद्गति हुई है।

उसी रात को मुझे खिलाते वक्त राजलक्ष्मी ने यह बात सुनी। सुनकर उसने आश्चर्य के साथ सिर्फ इतना कहा, “कहता क्या है रतन, क्या यह सच्ची बात है? तब तो छुकड़िया ने उस दिन अच्छा तमाशा किया। रुपये तो यों ही गये ही- और बेवक्त मुझे नहला मारा सो अलग- यह क्या, तुम्हारा खाना हो गया क्या? इससे तो खाने बैठा ही न करो तो अच्छा।”

इन सब प्रश्नों के उत्तर देने की मैं कभी व्यर्थ कोशिश नहीं करता- आज भी चुप रहा। मगर, एक बात का मैंने अनुभव किया। आज नाना कारणों से मुझे बिल्कुनल ही भूख न थी, प्राय: कुछ भी न खाया था- इसी से आज के कम खाने की ओर उसकी दृष्टि आकर्षित कर ली; नहीं तो, कुछ दिनों से जो मेरी खुराक, धीरे-धीरे घट रही थी; उस पर उसकी दृष्टि ही नहीं पड़ी थी। इससे पहले इस विषय में उसकी दृष्टि इतनी तीक्ष्ण थी कि मेरे खाने-पीने में यदि जरा-सी भी कमी-वेशी होती तो उसकी आशंका और शिकायतों की सीमा न रहती- परन्तु, आज, चाहे किसी भी कारण से हो, एक की उस श्येन-दृष्टि के धुँधली हो जाने से दूसरे की गम्भीर वेदना को भी सबके सामने हाय-तोबा करके लांछित कर डालूँ, ऐसा भी मैं नहीं। इसी से, उछ्वसित दीर्घ-निश्वास को दबाकर मैं बिना कुछ जवाब दिये चुपके से उठ खड़ा हुआ।

मेरे दिए एक ही भाव से शुरू होते हैं और एक ही भाव से खत्म होते हैं। न आनन्द है, न कुछ वैचित्रय है, साथ ही किसी विशेष दु:ख-कष्ट की शिकायत भी नहीं! शरीर मामूली तौर से अच्छा ही है।

दूसरे दिन सबेरा हुआ। दिन चढ़ने लगा। यथी-रीति स्नानाहार करके अपने कमरे में जाकर बैठा। सामने वही खुला जँगला, और वैसा ही बाधाहीन उन्मुक्त शुष्क मैदान। पत्रा में आज शायद कोई विशेष उपवास की विधि बताई गयी थी, इससे राजलक्ष्मी को आज उतना समय नष्ट न करना पड़ा- यथासमय के कुछ पहले ही वह सुनन्दा के घर की ओर रवाना हो गयी। अभ्यास के अनुसार शायद मैं बहुत देर से उसी तरह जँगले के बाहर देख रहा था। सहसा याद आई कि कल की उन अधूरी दोनों चिट्ठियों को पूरा करके आज तीन बजने के पहले ही डाक में छोड़ना है। अतएव झूठमूठ को समय नष्ट न करके शीघ्र ही उस काम में जुट गया। चिट्ठियों को समाप्त करके जब पढ़ने लगा, तब न जाने कहाँ एक व्यथा-सी होने लगी, मन में न जाने कैसा होने लगा कि कुछ न लिखता तो अच्छा होता; हालाँकि बहुत ही साधारण चिट्ठी लिखी गयी थी, फिर भी बार-बार पढ़ने पर भी, कहाँ उसमें त्रुटि रह गयी पकड़ न सका। एक बात मुझे याद है। अभया की चिट्ठी में रोहिणी भइया को नमस्कार लिखकर अन्त में लिखा था कि “तुम लोगों की बहुत दिनों से कोई खबर नहीं मिली। तुम लोग कैसे हो, कैसे तुम लोगों के दिन बीतते हैं सिर्फ कल्पना करने के सिवा, यह जानने की मैंने कोई कोशिश नहीं की। शायद सुख-चैन से हो, शायद न भी हो; परन्तु तुम लोगों की जीवन-यात्रा के इस पहलू को एक दिन मैंने भगवान पर छोड़ दिया था। तब अपनी इच्छा से उस पर जो पर्दा खींच दिया था- वह आज भी, वैसे ही लटक रहा है- उसे किसी दिन उठाने की इच्छा तक मैंने नहीं की। तुम्हारे साथ मेरी घनिष्ठता बहुत दिनों की नहीं, किन्तु, जिस अत्यन्त दु:ख से भीतर से एक दिन हम दोनों का परिचय आरम्भ और एक और दिन समाप्त हुआ था, उसे समय के माप से नापने की कोशिश हममें से किसी ने भी नहीं की। जिस दिन भयंकर रोग से पीड़ित था, उस दिन उस आश्रयहीन सुदूर विदेश में तुम्हारे सिवा और किसी के यहाँ जाने का मेरे लिए कोई स्थान ही न था। तब एक क्षण के लिए भी तुमने दुविधा नहीं की- सम्पूर्ण हृदय से इस पीड़ित को तुमने ग्रहण कर लिया। हालाँकि यह बात मैं नहीं कहता कि किसी बीमारी में, और कभी किसी ने वैसी सेवा करके मुझे नहीं बचाया; परन्तु आज बहुत दूर बैठा हुआ दोनों के प्रभेद का भी अनुभव कर रहा हूँ। दोनों की सेवा में, निर्भरता में, हृदय की अकपट शुभ कामना में, और तुम लोगों के निबि‍ड़ स्नेह में गम्भीर एकता मौजूद है; किन्तु तुम्हारे अन्दर ऐसा एक स्वार्थ लेशहीन सुकोमल निर्लिप्त-भाव और ऐसा अनर्विचनीय वैराग्य था, जिसने सिर्फ सेवा करके ही अपने आपको रीता कर दिया है, मेरे आरोग्य में उसने अपना जरा-सा चिह्न रखने के लिए एक कदम भी कभी आगे नहीं बढ़ाया, तुम्हारी यही बात रह-रहकर मुझे याद आ रही है। सम्भव है कि अत्यन्त स्नेह मुझसे झिलता नहीं, इसलिए- अथवा यह भी सम्भव है कि स्नेह का जो रूप एक दिन तुम्हारी ऑंखों और मुखड़े पर देखा था, उसी के लिए-सम्पूर्ण चित्त उन्मुक्त हो गया है। फिर भी, तुम्हें और एक बार ऑंखों से बिना देखे ठीक तरह से कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है।”

साहब की चिट्ठी भी खत्म कर डाली। एक बार सचमुच ही उन्होंने मेरा बड़ा उपकार किया था। इसके लिए उन्हें अनेक धन्यवाद दिए। प्रार्थना कुछ भी नहीं की, मगर एक लम्बे अरसे के बाद सहसा गले पड़कर चिट्ठी में इस तरह धन्यवाद देने का आडम्बर रचकर मैं अपने आप ही शरमाने लगा। पता लिखकर चिट्ठी लिफाफे में बन्द करते हुए देखा कि वक्त निकल गया। इतनी जल्दी करने पर भी चिट्ठियाँ डाक में नहीं डाली जा सकीं; पर इससे मन क्षुण्ण न होकर मानो शान्ति का अनुभव करने लगा। सोचने लगा, यह अच्छा ही हुआ कि कल फिर एक बार पढ़ लेने का समय मिल जायेगा।

रतन ने आकर जताया कि कुशारी-गृहिणी आई हैं, और लगभग साथ-ही-साथ उन्होंने भीतर प्रवेश भी किया। मैं जरा चंचल-सा हो उठा, बोला, “वे तो घर पर हैं नहीं, उनके लौटने में शायद शाम हो जायेगी।”

“सो मुझे मालूम है” कहते हुए उन्होंने जँगले के ऊपर से एक आसन उतारा और स्वयं ही उसे जमीन पर बिछाकर उस पर बैठ गयीं। कहने लगीं, “शाम ही क्यों, लौटने में करीब-करीब रात ही हो जाती होगी।”

लोगों के मुँह से सुना था कि धनाढ्य स्त्री होने से वे अत्यन्त दाम्भिक हैं। यों ही किसी के घर जाती-आती नहीं। इस घर के विषयों में भी उनका व्यवहार लगभग ऐसा ही है- कम-से-कम इतने दिनों से घनिष्ठता बढ़ाने के लिए कोई उत्सुकता प्रकट नहीं की गयी। इसके पहले सिर्फ दो बार और आई थीं। मालिकों का घर होने से एक बार वे खुद ही चली आई थीं और एक बार निमन्त्रण में आई थीं। परन्तु आज वे कैसे और क्यों सहसा अपने आप आ पहुँचीं, सो भी यह जानते हुए कि घर में कोई नहीं है- मैं कुछ सोच न सका।

वे आसन पर बैठकर बोलीं, “आजकल छोटी बहू के साथ तो एकदम एक आत्मा हो रही हैं।”

अनजान में उन्होंने मेरे व्यथा के स्थान पर ही चोट की, फिर भी मैंने धीरे से कहा, “हाँ, अकसर वहाँ जाया करती हैं।” उन्होंने कहा, “अकसर? नहीं, रोज-रोज! प्रत्येक दिन! मगर छोटी बहू भी कभी आपके घर आती है? एक दिन के लिए भी नहीं! मान्य का मान रक्खे ऐसी लड़की ही नहीं है सुनन्दा!” यह कहकर वे मेरे चेहरे की तरफ देखने लगीं। मैंने एक के नित्य जाने की बात ही सिर्फ सोची है, किन्तु दूसरे के आने की बात तो कभी मेरे मन में उठी तक नहीं; इसलिए उनकी बात से मुझे धक्का-सा लगा। मगर उसका उत्तर क्या देता? सिर्फ इतना ही समझ में आया कि इनके आने का उद्देश्य कुछ साफ हो गया और एक बार ऐसा भी मालूम हुआ कि झूठा संकोच और ऑंखों का लिहाज छोड़-छाड़कर कह दूँ कि “मैं अत्यन्त निरुपाय हूँ, इसलिए इस अक्षम व्यक्ति को शत्रु-पक्ष के विरुद्ध उत्तेजित करने से कोई लाभ नहीं।” कहने से, क्या होता सो नहीं जानता, परन्तु न कहने का नतीजा यह निकला कि सारा का सारा उत्ताप और उत्तेजना उनकी ऑंखों की पलकों पर प्रदीप्त हो उठी। और कब, किसके क्या हुआ था, और किस तरह वह सम्भव हुआ था, इसी की विस्तृत व्याख्या में वे अपने श्वशुर-कुल का दसेक साल का इतिहास लगभग रोजनामचे की तरह अनर्गल बकती चली गयीं।

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